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कविता

नागनथैया

श्रीप्रकाश शुक्ल


(कार्तिक शुक्ल पक्ष में प्रति वर्ष मनाया जाने वाला काशी का लख्खी मेला)

1-

गेंद की लीला में गेंद का यथार्थ कहीं खो गया|
गंगा गंगा नहीं रह गयी
कृष्ण कृष्ण नहीं रहे
श्रीदामा श्रीदामा नहीं रहे

सब कुछ लीलामय था
आदमी आदमी नहीं रहा
लीला अवतरण की एक डोर भर बचा था
जिसे उमस भरी भीड़ में
अंत अंत तक टूटने से बचना था

२-
किसी को कहीं नहीं जाना था
सब को बस लीला में ही रहना था

लीला जो की आँखों के सामने थी
आँखें जो की लीला के सामने थीं

हमें आज लीला में होना था
हम भी लीला में होने गए थे
जो जहाँ भी था बस लीला था

लीला कहीं नहीं थी
बस पानी था
जो की गीला था

3-
पानी और गीला !
पानी तो गीला होता ही है एक लीला रसिक ने कहा

मैंने कहा आज पानी ठोस है साधो और इसके गीला होने की परीक्षा है

यह पानी के लीला की परीक्षा थी
कि पानी को आज गीला होना था
और लीला को ठोस
और बेहद ठोस !

यह कालिया नामक नाग के दमन का क्षण था
जो की स्वयं एक लीला था
अपने यथार्थ रूप में हमारे भीतर बसने को आतुर 


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